जीवनकाल: 19 नवम्बर 1917 — 31 अक्टूबर 1984 (आयु 66 वर्ष)
पद: भारत की प्रधानमंत्री (1966-1977, 1980-1984)
पार्टी: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी, भारत की चौथी प्रधानमंत्री, भारतीय राजनीति की सबसे प्रभावशाली और विवादास्पद नेताओं में से एक थीं। उन्होंने अपनी चारों कार्यकालों में भारत की राजनीतिक और आर्थिक दिशा को नई राह पर डाला, जो आज भी चर्चा का विषय है। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने कई महत्वपूर्ण मोर्चों पर इतिहास रचा, जिनमें पाकिस्तान के साथ युद्ध, भारत की परमाणु नीति, और देश की आंतरिक समस्याओं के समाधान के लिए कठोर कदम शामिल थे।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवम्बर 1917 को हुआ था। उनके पिता, जवाहरलाल नेहरू, स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। इंदिरा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांति निकेतन से प्राप्त की, और बाद में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। 1942 में उन्होंने फीरोज गांधी से विवाह किया, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे।
प्रधानमंत्री बनने का सफर
इंदिरा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से जुड़कर राजनीति में कदम रखा। 1964 में, जब उनके पिता के उत्तराधिकारी, लाल बहादुर शास्त्री, प्रधानमंत्री बने, तब इंदिरा को सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में कार्यभार सौंपा गया। लेकिन जब शास्त्री का अचानक निधन हुआ, तो इंदिरा गांधी को पार्टी में समझौते के तहत प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया। उनका प्रधानमंत्री बनने का सफर एक राजनीतिक संघर्ष का परिणाम था, जिसमें दाएं और बाएं दोनों पंखों के बीच संतुलन स्थापित करना पड़ा।
इंदिरा गांधी ने 1955 में कांग्रेस कार्यसमिति और केंद्रीय चुनाव पार्टी की सदस्यता प्राप्त की थी। 1958 में उन्हें कांग्रेस के केंद्रीय संसदीय बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया गया। 1956 में वे अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और महिला विभाग की प्रमुख भी रहीं। 1959 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और 1960 तक इस पद पर रहीं, फिर 1978 में एक बार फिर इस पद पर आसीन हुईं। उन्होंने 1964 से 1966 तक सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में कार्य किया।
भारत के प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी का योगदान
1966 में प्रधानमंत्री पद के लिए हुए चुनाव में इंदिरा गांधी ने 355 वोट प्राप्त किए, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी देसाई को 169 वोट मिले। जीत के बाद इंदिरा ने खुद को “देश सेविका” कहकर विनम्रता से अपनी जिम्मेदारी स्वीकार की। पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने इस चुनाव के महत्व को बताते हुए कहा, “यह शायद नीति की निरंतरता और व्यक्तित्व की निरंतरता को सुनिश्चित करता है।”
इंदिरा गांधी की नियुक्ति ने न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। अमेरिकी पत्रिका Time ने उन्हें “Troubled India in a Woman’s Hands” शीर्षक से कवर किया, जबकि अंग्रेजी पत्रकार जॉन ग्रिग ने The Guardian में लिखा, “इतिहास में शायद ही कोई महिला इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाई हो, और निश्चित ही भारत जैसा महत्वपूर्ण देश कभी भी इतनी शक्ति किसी महिला को सौंपा है।”
1966 में 24 जनवरी को उन्होंने भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उनका प्रधानमंत्री बनना न केवल उनके कठिन प्रशिक्षण और जिम्मेदारियों का परिणाम था, बल्कि यह देश में एक भावनात्मक जुड़ाव और प्रशंसा का भी प्रतीक था।
आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम
इंदिरा गांधी ने 1972 में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया था, “पहले दशक में असहाय लोगों का नारा स्वतंत्रता था, आज यह आत्मनिर्भरता होना चाहिए।” उनका प्रधानमंत्री बनने के बाद आर्थिक नीतियों में लगातार आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना जारी रहा।
उनकी सरकार ने खाद्यान्न, रक्षा और प्रौद्योगिकी जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने भारत को तेल संकट जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से बचाने के लिए घरेलू उत्पादन को बढ़ाया। साथ ही, 1970 के दशक के मध्य और 1980 के दशक की शुरुआत में महंगाई को काबू में किया।
उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए, और भारत को विकासशील देशों में वैज्ञानिक ज्ञान और मानव संसाधन के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया।
समाज में सुधार के लिए 1970 के दशक में भूमि सुधार की दिशा में उठाए गए कदमों ने ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल दी। इसके परिणामस्वरूप लाखों भूमिहीन परिवारों को भूमि का अधिकार मिला। इंदिरा गांधी ने परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष अनुसंधान में भी विशेष रुचि दिखाई, और इसके शांतिपूर्ण उपयोग के लिए अनुसंधान में बढ़ावा दिया।
उनकी नीतियों और नेतृत्व के कारण भारत ने आत्मनिर्भरता की ओर महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए, और इंदिरा गांधी के योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण और अन्य महत्वपूर्ण उद्योगों का राष्ट्रीयकरण: इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक पहल
“…एक संस्था, जैसे कि बैंकिंग प्रणाली, जो लाखों लोगों के जीवन को छूती है, उसे हमेशा एक बड़े सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए और उसे राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए…” – इंदिरा गांधी, आकाशवाणी प्रसारण, जुलाई 1969
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत सरकार ने 1969 में एक ऐतिहासिक कदम उठाया। 19 जुलाई की मध्यरात्रि से 14 सबसे बड़े वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के लिए ‘बैंकिंग कंपनियों (अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1969’ का नोटिफिकेशन जारी किया गया। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते हुए, जो देश की कुल जमा राशि का 70 प्रतिशत नियंत्रित करते थे, सरकारी नियंत्रण में लाया गया। इसके बाद 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1955 में पहले ही इंपीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण कर उसे भारतीय स्टेट बैंक बना दिया गया था।
बैंकिंग क्षेत्र में बदलाव और आर्थिक प्रभाव
इंदिरा गांधी के इस निर्णय से बैंकों का उद्देश्य केवल लाभ अर्जित करना नहीं, बल्कि समाज के कमजोर वर्गों को भी वित्तीय मदद प्रदान करना बन गया। बैंकों को कृषि, छोटे और मंझले उद्योगों को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर किया गया। राष्ट्रीयकरण के बाद, बैंकों को अपने कुल ऋण का 40 प्रतिशत कृषि और छोटे-मंझले उद्योगों को देने का निर्देश दिया गया, जिससे इन क्षेत्रों को वित्तीय सहायता मिली और विकास में तेजी आई।
यह पहल न केवल घरेलू बचत को बढ़ावा देने में मददगार साबित हुई, बल्कि छोटे और मंझले उद्यमों (SMEs) और कृषि क्षेत्र में भी भारी निवेश किया गया। इसने भारतीय औद्योगिक और कृषि आधार के विस्तार में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। बैंकिंग क्षेत्र के इस सुधार ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में समग्र विकास को बढ़ावा दिया और भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव को और मजबूत किया।
सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम
इंदिरा गांधी के इस निर्णय का उद्देश्य केवल आर्थिक सुधार नहीं था, बल्कि यह समाज के निचले वर्गों के लिए वित्तीय समावेशन और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में भी एक बड़ा कदम था। राष्ट्रीयकरण के बाद, बैंकों ने गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण वितरण को बढ़ाया, जिससे व्यापक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक लाभ हुआ।
जयप्रकाश नारायण की सराहना
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इस कदम को विपक्षी नेता जयप्रकाश नारायण ने भी सराहा। हालांकि वे इंदिरा गांधी के खिलाफ 1970 के दशक में प्रमुख विरोधी नेताओं में से एक बने, लेकिन उन्होंने बैंक राष्ट्रीयकरण को सही कदम मानते हुए इसकी सराहना की। उनका मानना था कि यह कदम भारत के वित्तीय क्षेत्र को मजबूत करेगा और समाज के पिछड़े वर्गों को आर्थिक अवसर प्रदान करेगा।
दूसरे प्रमुख उद्योगों का राष्ट्रीयकरण
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में केवल बैंकिंग क्षेत्र नहीं, बल्कि अन्य कई महत्वपूर्ण उद्योगों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। कोल, स्टील, ताम्बा, शुद्धीकरण, सूती वस्त्र और बीमा उद्योगों को भी सरकारी नियंत्रण में लाया गया। इन कदमों का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी निर्भरता से मुक्त कर आत्मनिर्भर बनाना था।
इन्हीं पहलुओं के माध्यम से इंदिरा गांधी ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए स्थिरता और समृद्धि की दिशा तय की, बल्कि उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि विकास के लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुंचे। यह नीति न केवल औद्योगिक विकास में सहायक रही, बल्कि इससे समाज में समानता और सामाजिक न्याय की ओर भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए गए।
1971 युद्ध के बाद तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, विदेशी स्वामित्व वाली निजी तेल कंपनियों ने भारतीय नौसेना और वायुसेना को ईंधन आपूर्ति करने से इंकार कर दिया था। इस विरोधाभासी स्थिति के बाद, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1973 में तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया।
राष्ट्रीयकरण के बाद, प्रमुख तेल कंपनियों जैसे कि इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOC), हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (HPCL) और भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (BPCL) को यह निर्देश दिया गया कि वे तेल का एक न्यूनतम भंडार बनाए रखें, जिसे जरूरत पड़ने पर सैन्य बलों को आपूर्ति किया जा सके। इसके अलावा, 1974 और 1976 में इंदिरा गांधी ने ESSO और बर्मा शैल (Caltex और IBP भी राष्ट्रीयकृत किए गए थे) का राष्ट्रीयकरण किया।
इंदिरा गांधी ने तेल आपूर्ति की स्थिरता सुनिश्चित करने और कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए ऑयल कोऑर्डिनेशन कमेटी का गठन किया। साथ ही, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को निर्धारित करने के लिए ‘प्रशासित मूल्य निर्धारण तंत्र’ (Administered Pricing Mechanism) की शुरुआत की। इन निर्णयों से न केवल भारत की ऊर्जा सुरक्षा मजबूत हुई, बल्कि यह कदम भारत को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
हरित क्रांति
भारत में हरित क्रांति इंदिरा गांधी के व्यापक और क्रांतिकारी कार्यक्रमों का एक प्रमुख हिस्सा थी, जिसे उन्होंने 1960 के दशक के मध्य और अंत में शुरू किया।
पंडित नेहरू के अंतिम कार्यकाल और शास्त्री जी के अंतरिम कार्यकाल के दौरान कृषि सुधार मुख्य रूप से ज़मीन के उपयोग और स्वामित्व के संरचनात्मक सुधारों से हटकर, तकनीकी विकास की ओर बढ़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था गेहूं और चावल की हाइब्रिड, उच्च उपज वाली किस्मों का प्रचलन। इन नई किस्मों ने उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि की, खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में।
इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति को सरकार की प्रमुख प्राथमिकता बनाया और इसके साथ ही किसानों के लिए राज्य द्वारा सब्सिडी, बिजली की आपूर्ति, सिंचाई के लिए पानी, उर्वरक और ऋण जैसी योजनाएं शुरू की। इसके अलावा, कृषि आय को कर से मुक्त किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया, जो इंदिरा गांधी के लिए एक महत्वपूर्ण लक्ष्य था, खासकर तब जब अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने खाद्य सहायता को शर्तों से जोड़ दिया था।
कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश भी तेजी से बढ़ा। 1968 से 1973 के बीच कृषि के लिए संस्थागत वित्त में दो गुना वृद्धि हुई। साथ ही, सार्वजनिक निवेश, संस्थागत ऋण, उपयुक्त कीमतें और नई तकनीक को सस्ते मूल्य पर उपलब्ध कराए जाने से किसानों के निजी निवेश की लाभप्रदता बढ़ी। इसका परिणाम यह हुआ कि 1967-68 और 1970-71 के बीच खाद्यान्न उत्पादन में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके साथ ही, 1966 में 10.3 मिलियन टन के खाद्य आयात से घटकर 1970 में यह 3.6 मिलियन टन रह गया।
इस रणनीति के परिणामस्वरूप, भारत न केवल खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर हुआ, बल्कि 1980 के दशक तक खाद्य भंडार में 30 मिलियन टन से अधिक की वृद्धि हुई और भारत खाद्य निर्यात करने में सक्षम हो गया। यह सफलता न केवल देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में सहायक रही, बल्कि भारत को खाद्य संकट से जूझ रहे देशों को सहायता देने के योग्य भी बना दिया।
निष्कर्ष
इंदिरा गांधी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जो कदम उठाए, उनमें तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण और हरित क्रांति जैसे निर्णय बेहद महत्वपूर्ण थे। इन पहलों ने भारत को खाद्यान्न सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, और औद्योगिक आत्मनिर्भरता की दिशा में मजबूती से आगे बढ़ाया, और इसके परिणामस्वरूप भारत को न केवल आर्थिक स्थिरता मिली, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी उसकी पहचान मजबूत हुई।